Tuesday, November 29, 2011

वक्त का सैलाब इनसान ही नहीं इतिहास तक को निगल जाता है...



चलो तितलियों, मछलियों और जुगनूओं से सीखें
रंग बिखेरें, खूब हँसे,
ये क्यों करें कि हम ही हम सही,
ये भी क्यों करें कि तुम ही तुम सही, 
क्यों रूठें किसी बात पर,
ज़िंदगी कब रही है किसी की,
ज़िंदगी सिर्फ सही और गलत के तराजू को उठाये फिरते रहने का नाम नहीं.....
वक्त का सैलाब इनसान ही नहीं इतिहास तक को निगल जाता है,
'आज' बस 'बीते कल' के रूप में हाशिए पर खड़ा रह जाता है,
चलो एक दूसरे का हाथ पकड़ चलें,
हर बार दोस्ती का मतलब, 'मतलब' नहीं होता,
तितलियाँ रंग पर रंग उड़ेल देती, फूलों के रंगों में अपने रंग खोने का डर नहीं रखतीं,
मछलियाँ पानी में आँसू उड़ेल देतीं, पता नहीं कब हँसतीं कब रोतीं,
जुगनू चांदनी में रोशनी उड़ेल देते, छोटी छोटी कोशिश से उजाले भरते,
बांटने से कब कुछ कम हुआ है, 
प्रेम बाटें, खुशी बाटें, गम बाटें...
कभी पढ़ा था विज्ञान की किताबों में,
किसी क्रिया, प्रक्रिया और वातावरण से, रूप बदल जायें तो भी उनके असर से 
तत्वों का कुल वजन कम नहीं होता, उनकी कुल ऊर्जा कम नहीं होती...
तो फिर बाँटने से भावनाएं कैसे कम हो सकती हैं.... 


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